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बसेरा

Monday, May 1, 2017 | 10:45:00 PM

“बसेरा”- एक लघु कथा

ज्योंहि मैंने अपने बेडरूम की खिड़की खोली,आँखें खुली की खुली रह गयीं। सामने पीले और नारंगी गुलमोहर एक कतार में लगे हवा से झूम रहे थे। साथ में दूसरे छोटे-बड़े हरे पेड़- पौधे झूमते इतने सुहाने लग रहे थे कि मैं बस अपलक ये खूबसूरत नजारा निहारती ही रह गयी। तभी फूलों की भीनी -भीनी खुशबू आकर मेरी साँसों से मिली। मैंने जोर से साँस खींचा और आँखें बंद करके उस खुशबू को महसूस करने लगी। तभी एक गुड़-गुड़ की आवाज से मेरी तन्द्रा टूटी। आँखें खोली तो देखा कि खिड़की के छज्जे पर कबूतर का एक जोड़ा बैठा एक दूसरे से प्रेमालाप कर रहा है।सबसे बेखबर दोनों आपस में मस्त थे।छज्जे के पास से ही एक पेड़ की शाखाएं जा रही थीं जिनपर उन कबूतरों का घोंसला था। बीच-बीच में दोनों घोंसले में जाकर दाने भी चुग आते थे। मेरी वजह से कहीं वे उड़ न जाएं, यह सोच कर मैं धीरे से वहाँ से हट गयी।
अभी दो दिनों पहले ही हम नए घर में शिफ्ट हुए थे। हमारे घर के बगल वाला प्लॉट खाली पड़ा था और वहीं का ये खूबसूरत नजारा दूसरे मंजिले पर स्थित मेरे बेडरूम से दिखता था। मेरे पापा हमेशा कहते थे कि प्रकृति से अच्छा कोई गुरु नहीं, जीवन के हर आयाम सीखा देती है। सचमुच,महानगर मेंं यह प्राकृतिक वातावरण पाकर तो मैं धन्य हो गयी। मैंने अपने नौकर से कहकर कबूतरों के लिए छज्जे पर एक कटोरे में दाने और एक में पानी रखवा दिया। अब तो यह मेरा रोज का नियम बन गया। हर दिन अपना काम निपटाकर मैं खिड़की पर आकर बैठती, कभी कबूतरों को दाना खिलाती, कभी गिलहरियों की रेस देखती।कभी पेड़ पर उछलते , खेलते, झगड़ते पक्षियों को देखती, कभी नीचे से भौंकते और दूसरे अन्य जीवों पर गुर्राते कुत्तों का खेल देखती। बड़ा ही मनोरम था सब कुछ। धीरे-धीरे मैं अपनेआप ही सबकी साथी बन गयी। बड़ा मजा आ रहा था। कुछ ही दिनों में कबूतरी ने अंडे दिए। मेरी भी जिम्मेवारी बढ़ गयी। रह-रह कर मैं घोंसले का निरीक्षण करती कि कहीं कोई अंडों को नुकसान ना पहुँचा दे। 
इसी बीच गर्मियों में बच्चों की छुट्टियां हुईं और घर जाने तथा घूमने- फिरने का प्रोग्राम बन गया। बहुत दिनों से हम कहीं निकले नहीं थे, लिहाजा पति ने ऑफिस से छुट्टी ले ली और एक साथ डेढ़-दो महीने का प्रोग्राम बना लिया। हम छुट्टियों के लिए निकल पड़े। जाते समय भी मैंने अपने नौकर को अंडों का ध्यान रखने को कह दिया।
दो महीने बाद वापस आकर जब मैंने अपने बेडरूम की खिड़की खोली तो मेरी चीख निकल गई । सामने न तो कोई पेड़ था, न हरियाली थी और न ही कोई पक्षी। सारी जमीन खुदी पड़ी थी और जगह-जगह लोहे की छड़, सीमेन्ट के बोरे और बड़ी बड़ी मशीनें रखी थीं। पता चला कि जमीन बिक गयी है और बहुत बड़ा अपार्टमेंट बनने वाला है। मैं तो लगभग रो पड़ी, मन व्याकुल हो उठा कि मेरे प्यारे मूक साथी कहाँ गये होंगे। उन कबूतरों को याद करके मेरी आँखों में आँसू भर गये।क्यों मनुष्य इतना पैसों के लिए पागल है कि उसे ना तो हरियाली दिखती है ना ही जीव-जन्तुओं का बसेरा ? इन मूक जीवों का बसेरा उजाड़ कर लोगों को घर बेचा जाएगा, भला ऐसा घर किस काम का ? किसी जीव की खुशियाँ अंडों से बाहर आने वाली थीं, जब कटे पेड़ के साथ उनका घोंसला इतनी ऊँचाई से गिरा होगा तो उन मासूम कबूतरों को कैसा लगा होगा? सोचकर मैं रो पड़ी। हर वक्त चहकने वाला माहौल मेरी सिसकियों में डूब रहा था। तभी मुझे गुड़ गुड़ की आवाज सुनाई दी। एक पल तो लगा कि भ्रम है पर अगले पल जब नीचे झाँक कर देखा तो मेरी बाँछे खिल गयीं। एक टूटी सी टोकरी जो मेरे छज्जे पर गिर पड़ी थी, अब कबूतरों का बसेरा बन गयी थी। बाकी पक्षी तो बसेरा लेने इधर -उधर चले गए थे पर उन कबूतरों ने अपने घोंसले को मेरे छज्जे पर उस टोकरी में शिफ्ट कर लिया था। उसमें से दो नन्हें- नन्हें बच्चे बड़ी मासूमियत से मुझे देख रहे थे। मेरी खुशी का तो ठिकाना नहीं रहा। मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद कहा और आँसू भरी आँखों से उनके लिये दाने का इन्तजाम करने के लिए चल पड़ी।आज मुझे भी पंख मिल गये थे।

. अर्चना अनुप्रिया।

Posted By Archana Anupriya

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